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वतन की खातिर मरने को तैयार रहना।

लाठियों की चोटों में भी, गीत वंदे मातरम का गाते गए। क्या होती है पीड़ा गुलामी की, घूम-घूम सबको बताते गए।। भरी जवानी त्याग दिया परिवार, त्यागें उनके जो भी अपने थे। उन सरफरोशों की निगाहों में तो, बस आजाद भारत के सपने थे।। कैसे भूलूं मैं डायर की बगावती बोली को। वो जलियाँवाला बाग, उस खूनी होली को। कैसे भूलूं मैं भगत की फांसी, शेखर की अंतिम गोली को। कैसे भूलूं मैं हाडा रानी का कटा शीश वो मेहंदी कुमकुम रोली को।। ऐ मेरे साथियों आजादी की हमने बड़ी कीमत चुकाकर है। लहू की नदियों में बहकर आजादी घर आई है। तो वतन की खातिर अपना सारा प्यार रखना। गर आन पड़े मुसीबत, तो मरने के लिए खुद को तैयार रखना।। विनोद विद्रोही नागपुर

तिरंगा फहराने पर गोली खाई है।

लगता ये मसला अब बन चुका स्थाई है। मजहब ने देशप्रेम से ऊपर जगह पाई है। रंगों में बंट रहा मुल्क बात ये दुखदायी है। जो वतन की बात ना करे सोच वो हरजाई है। मुझको तो बस बात इतनी समझ आई है। एक डाल के हम फूल,  एक दूजे की परछाई हैं। फिर कैसा ये धुंआ है, किसने ये आग लगाई है। लगता है सियासी मकानों से फिर कोई चिंगारी आई है। ये देश है राम-रहीम का, बिस्मिल और अशफाक का। मिलकर सब रहते, काम नहीं यहां किसी नापाक का। फिर नफरतों वाली ये हवा कहां से बह के आई है। क्यों तिरंगा फहराने पर एक बेटे ने गोली खाई है। विनोद विद्रोही नागपुर

तो हम पूरा थोक बाजार होते।

गर तुम पढ़ने को तैयार होते, तो हम कोई मशहूर अखबार होते। जहां में कहीं दर्द के खरीदार होते। तो हम पूरा थोक बाजार होते।। जिंदगी के मंच पर रोज नाटक करना पड़ा। भला कैसे ना हम कलाकार होते। हर मोड़ पे नई भूमिका में नज़र आए। तो कैसे हम एक किरदार होते।। वक़्त रहते जो समझ पाते अहमियत, तो हम भी किसी का सारा संसार होते। ना वो ठोकर लगती, ना हाथ से छूटता। तो कांच के रिश्ते यूं ना तार-तार होते।। विनोद विद्रोही

तुम हाफिज बने रहे अशफाक ना बन पाए।

सफर में थे हम तुम साथ चले। खुद को देखो, फिर हिंदोस्तां में झांको। दूसरों पर गुर्राने से कुछ ना होगा। मशवरा है, अब तो अपने गरेबां में झांको।। बोये जा रहे फसल तुम आतंक की। कहर बरप रहा, जरा आसमां में झांको। जो लिप्त हो लाशों के कारोबार में तुम। जगह तुम्हारी बची की नहीं, जाके शमशां में झांको।। अब तक मिली, खैरात मिलना अब बंद हुई। तो जाहिर है ये फकीर बौखलायेंगे।। छीछड़े फेंककर अब तक तुमने जिनको पाला। वो श्वान अब तुम्हें ही काट खायेंगे।। पाक नाम रखने वाले, कभी पाक ना बन पाये। बेवजह चिल्लाते रहे, कभी बेबाक ना बन पाये।। बन बिस्मिल हमने सदा हाथ बढ़ाया दोस्ती का। तुम ही हाफिज बने रहे, कभी अशफाक ना बन पाये।। विनोद विद्रोही नागपुर

मेरा पेट भरकर, मां को भूखा देखा है।

मजबूरियों के बोझ को बड़ी हिम्मत से ढोते देखा है। मेरी हटों पर चांटा मारकर, मां को रोते देखा है। घर में इक दाना नहीं, मैंने ऐसा सूखा देखा है। फिर भी मेरा पेट भरकर, मां को भूखा देखा है।। विनोद विद्रोही

पाला ना पड़े किसी का निजी अस्पतालों से।

अक्सर भयभीत हो जाता हूं ऐसे भयावह ख्यालों से। पाला ना पड़े किसी का निजी अस्पतालों से।। कदम-कदम पे इतना मांगते जैसे घूस लेते हैं। घर-बार, धन-दौलत ही नही, खून तक चूस लेते हैं।। निजी अस्पतालों की मार से हम ना यूं बेहाल होते। जो देश के सरकारी अस्पताल, सचमुच अस्पताल होते।। विनोद विद्रोही

कैसी भूख थी साहब, जो तुम चारा खा गए।

कभी नदी की मोड़ तो कभी नहर की धारा खा गए। कोई भूखंड तो कोई गली-चौबारा खा गए।। पहले जिसे खा चुके थे तुम उसे दोबारा खा गए। मीठे से जी ना भरा तो तुम खारा खा गए।। बेजुबान पशुओं के जीने का सहारा खा गए। कैसी भूख थी साहब, जो तुम चारा खा गए।। देश की कितनी प्रतिभाएं, ऐसे नकारा खा गए। कैसे बयां करे विद्रोही, ये नेता देश सारा खा गए।। विनोद विद्रोही नागपुर(7276969415)